देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर 1991 के जुलाई से शुरू होता। मगर यह महज अर्थव्यवस्था का ही उदारीकरण नहीं था,बल्कि अर्थव्यवस्था अपने साथ सांस्कृतिक और सामिजिक उदारीकरण भी लेकर आया। चीज़ें बदल रही थीं और युवा बेलौस हो रहे थे। दिल चाहता है का ये तराना मानो हर युवा के तेवर का सिग्नेचर ट्यून बन गया था:
कोई कहे, कहता रहे कितना भी हमको दीवाना
हम लोगों की ठोकर में है ये ज़माना
जब साज़ है, आवाज़ है, फिर किस लिए हिचकिचाना

मगर, इस बेलौस दीवनगी और हिचकिचाने की सख़्त मनाही जिस हीरो के साथ वर्षों पहले सिनेमाई पर्द पर धड़जकने लगी थी,वह ऋषि कपूर ही थे। ऋषि कपूर जिस परिवार से आते थे,उसकी कई कमज़ोरियां और ख़ासियतें थीं। मसलन; पिता राजकपूर का बॉलिवुड का शो मैन होना, दादा पृथ्वीराज कपूर का प्रगतिशील कलाकारों के एसोसिएशन इप्टा से जुड़ा होना, इन दोनों का अपनी बेटियों को बॉलिवुड से दूर रखने की अप्रगतिशील सोच को लगातार कैरी करते जाना, पारिवारिक अनुशासन का सख़्ती से पालन करना,परिवार के लगभग हर बेटे का बचपन से ही सिनेमाई पर्दे से दो-चार होते रहना वगैरह-वगैरह।
मगर इसी वगैरह-वगैरह से इंसान की पर्सनैलिटी भी बनती है। मगर पूरी पर्सनैलिटी इसी वगैरह-वगैरह बनती भी नहीं है। आख़िरकार हर मनुष्य की अपनी मौलिक सोच होती है और उस मौलिक सोच किसी की शख़्सियत के केन्द्र में होती है और उस केन्द्र की चारों तरफ़ वह माहौल रचा बसा होता है,जिसमें वह ज़िंदगी बीता रहा होता है। ऋषि कपूर की पर्सनैलिटी भी इसी के ईर्द-गिर्द बनी थी। शायद वह जिस सख़्त अनुशासन के बीच पले-बढ़े थे,उसे उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता का इंतज़ार था। हालांकि उस सख़्ती को सिनेमाई पर्दे पर छूट थी। इसके लिए मेरा नाम जोकर के उस किशोर लड़के को याद किया जा सकता है,जिसका सख़्त पिता उस फ़िल्म का डायरेक्टर भी था, लेकिन फ़िल्मी पर्दे पर अपने से बड़ी उम्र की औरत और ऊपर से टीचर के साथ एकतरफ़ा उम्रगत रोमांस की उसे इजाज़त थी। यह इजाज़त असल में उस मद्धम रौशनी की तरह थी,जिसे ख़ुद राजकपूर, शम्मी कपूर और शशी कपूर से लेकर ऋषि कपूर तक को बेलौस शख़्सियत में बदल दिया था। इसे निजी ज़िंदगी की सख़्ती का पर्दे की ज़िंदगी पर विद्रोह भी कहा जा सकता है।
लेकिन, ऋषि कपूर का यह विद्रोह रिदमिक था और समय से कहीं आगे चलती इसी बग़ावत से ऋषि कपूर बनते थे। यह विद्रोह किसी के ख़िलाफ़ भी नहीं था,बल्कि अपनी बेलौसपन के साथ था। अगर बेलौस शब्द किसी की परसनैलिटी पर पूरी तरह फिट बैठता है,तो वह ऋषि कपूर ही थे। उन्हें कभी एक्टिंग के लिए कोशिश करते नहीं देखा गया। ऋषि कपूर कैमरे और पर्दे के बीच के रिश्ते के बीच की एक सहज कड़ी दिखते थे। सत्तर और अस्सी के दशक में जहां अमिताभ व्यवस्था के ख़िलाफ़ ग़ुस्से का प्रतीक बन गये थे,मगर उस ग़ुस्से के बीच ऋशि कपूर अपने उन्हीं दर्शकों को इस बात का भरोसा दिला रहे थे कि इस ग़ुस्से के बीच गुज़र रही जवां उम्र का रोमांस महफ़ूज़ है;उस ग़ुस्से के बीच गिटार के भी मायने हैं और ऋषि कपूर ही वो नायक थे,जिन्होंने आर्थिक उदारीकरण के साथ आये सामाजिक-सांस्कृतिक उदारीकरण के उस युवा की कल्पना को फ़िल्मी पर्दे पर बख़ूबी उतार दिया था,जो अपनी सोच के सामने बिना हिचकिचाये ज़माने को ठोकर पर रखता है। इस मायने में इस दौर के युवाओं की पूर्व दस्तक थे ऋषि कपूर………..श्रद्धांजलि !
More Stories
Daily NEWS Summary: 20.01.2021
killer hornet
Spaniard Rafael Nadal won his 20th Grand Slam